सम्पादकीय -जया पाठक



















यह पुरातन गाँव मेरा


यह गाँव मेरा
अपने आज के इस
प्यास में भी
लगा मेला
ठेलम ठेला
बाल्टी में डेकची में
(आत्मा में)
डोर डाले
झांकता
बीते युगों के
रीत के अंधे कुएं में
क्या पता 
रस्साकस्सी में
कौन किसको खींचता है...
आज-कल का
यह अनोखा द्वन्द भाई!
डोरियों से बंधा सा यह
खींचता सा गाँव मेरा
खिंच रहा है
भर रहा है
रीतियों से गागरें या
रीतता जाता हुआ सा
आज से
(या बाहरी समाज से )
यह पुरातन गाँव मेरा

(जया पाठक)

दोस्तों, स्वागत है आप सबका नई हवा के ब्लॉग पर. अगस्त २०१० के "इस माह के शीर्षक" के अंतर्गत हमने एक चित्र चुना था जिसपर सभी साथ कवियों की कवितायेँ आ चुकी हैं! आप सभी कवि और पाठक मित्रों का हार्दिक अभिनन्दन है. यहाँ इस ब्लॉग पर सभी रचनायें प्रकाशित कर दी गयीं हैं. हमारे इस माह के समीक्षक है श्री अर्नेस्ट अल्बर्ट और श्री सौरभ पाण्डेय. बस अब आप दोनों के सुझाव, टिप्पणियाँ, समीक्षा एवं मार्गदर्शन अपेक्षित है.

अगले महीने का शीर्षक और समीक्षक-संपादक समूह को घोषणा शीघ्र हो की जाएगी. साथ बने रहे....

सादर
जया पाठक श्रीनिवासन

इस पक्ष का विषय - (Aug 1-15, 2010)
















राणा प्रताप सिंह राणा
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जो तपते थार में कूवाँ पुराना मिल गया है
किसी प्यासे मुसाफिर को ठिकाना मिल गया है

लगी है भीड़ कितनी देखो इस वीराने में भी
यूँ लगता है इन्हें कोई ख़जाना मिल गया है

मिला मौका, हुए खुश, यूँ वो लटका अपनी रस्सी
उन्हें मछली की आँखों का निशाना मिल गया है

भुला बैठे हैं सब हिन्दू, मुसलमाँ, ऊँची, नीची
यही पर आ के देखो ताना-बना मिल गया है

वही चंपा चमेली कैद थी अब तक जो घर में
उन्हें घर से निकलने का बहाना मिल गया है

सियासत ने बेगाना कर दिया इस गाँव से उनको
कि मंत्रालय उन्हें अब जाना माना मिल गया है
(राणा प्रताप सिंह)


पल्लव पंचोली
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ज़िन्दगी के नशे मे है झूमती जिंदगी
मौत के कुएँ मे भी है घूमती जिंदगी

जिंदगी की कीमत तो जिंदगी ही जाने
रेगिस्तान मे जलबूँद है ढूँढती जिंदगी

हो गर जवाब तो वो लाजवाब ही होवे
हर पल ऐसे सवाल है पूछती जिंदगी

कोई मिला ख़ाक मे, कोई खुद धुआँ हुआ
धरती और गगन के बीच है झूलती जिंदगी

किसी का गम किसी की मुस्कुराहट यहाँ
हर हाल में मुस्कुराके आँखे है मूंदती जिंदगी

जान ले "मासूम " रुसवाई नहीं किसी को यहाँ
मौत के भी खुश होकर पग है चूमती जिंदगी
पल्लव पंचोली (मासूम)


अनुपमा पाठक
" ठाकुर का कुआँ "

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प्रेमचंद की कहानी का
वह गाँव
कुछ कुछ सजीव होता है !
जब बात उठती है जल श्रोतों की
तो भरी भीड़ की
प्यास के आगे
बूंदों का अभाव सजीव होता है !

कहाँ है जल...
यहाँ तो
केवल
प्यासी आत्माएं खड़ी हैं
कौन बताएगा
कि
आखिर कैसे
जीवन "शव" से "शिव" होता है?!!!

अभाव के संकट से ...
कैसे उबरा जाये ...
मिलते हैं प्रभु तभी... जब
उन तक पहुचने का संकल्प अतीव होता है !
प्रकृति छेड़-छाड़ से तंग आ चुकी है ...
सूख रहे हैं जलश्रोत
मनुष्यता का यूँ तार तार हुआ जाना ...
क्या चेतन जगत
इस कदर निर्जीव होता है?!!!

हम समस्याओं और प्रश्नों से
वैसे ही घिरे हुए हैं ...
जिस तरह
जलश्रोत को घेरे ये भीड़ खड़ी है
समाधान भी होगा जरूर....
आखिर
हममे से ही तो कोई
दृढ़ उत्तर सा सजीव होता है!

एक अकेला सरल सा उत्तर
सारे प्रश्नों का हल होगा ....
हौसले की बात हो...
पानी का क्या ...
अरे! क्या हर पल
हमारी आँखों में ही नहीं
उनका अक्स आंसू बन कर
सजीव होता है ?!!!

अश्रु ढलते दृगों को
हास से परिचीत कराना है
झिलमिल बूंदों से ही
तो इन्द्रधनुषी संसार सजीव होता है !
ज़रा सी संवेदना जागे...
एक दुसरे के सुख दुःख के प्रति सरोकार हो
जीवन इन छोटे छोटे उपादानो से ही तो
सांस लेता है... चलता है ... सजीव होता है !
(अनुपमा)


रोली पाठक
"बेबसी......... "

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इच्छाएं अनंत
मन स्वतंत्र
जीवन परतंत्र......
दायित्व अपार
असहनीय भार
कैसे हों,स्वप्न साकार.....!!!
दमित मन
ह्रदयहीन तन
विचलित जीवन.......
ह्रदय की पीर
नयनों के नीर
तन, बिन चीर.......
अन्न न जल
भूख से विहल
दरिद्र नौनिहाल............
माँ की बेबसी
तन को बेचती
रोटी खरीदती..............
ह्रदय पाषाण
व्यथित इंसान
हे देश, फिर भी तू महान..........!!!
(रोली पाठक)


शाहिद अख्तर
"'हाई टी' और 'डिनर' के बाद"

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कभी देखा है तुमने
देश की तक़दीर लिखने वालों ने
क्याक क्याद ना बनाया है हमारे लिए
आग उगलती, जान निगलती
हजारों मील दूर मार करने वाली मिसाइलें हैं
हम एटमी ताकत हैं अब
किसकी मजाल जो हमें डराए धमकाए
अंतरिक्ष पर जगमगा रहे हैं
हमारे दर्जनों उपग्रह
चांद पर कदम रखने की
हम कर रहे हैं तैयारियां
और दुनिया मान रही है हमारा लोहा
हम उभरती ताकत है
अमेरिका भी कह रहा है यह बात
हां, यह बात दीगर है
कि भूख और प्याास के मामले में
हम थोड़ा पीछे चल रहे हैं
लेकिन परेशान ना हों
'हाई टी' और 'डिनर' के बाद
नीति-निर्माताओं की
इसपर भी पड़ेगी निगाह
(शाहिद अख्तर)



शमशाद इलाही अंसारी "शम्स"
”हम सब”

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यह कौन है
अभी इसी लोक में ही है
या सिधार गया परलोक
क्यों उसके शरीर को
सिर से सिर जोड़ कर
तन से तन लगा कर
एकटक होकर
बिना कुछ बोले
निशब्द से
निस्तब्ध से
पथरीली आँखों से
देख रहे हैं ये लोग
यह कौन है?
जो अपने प्राण प्रवास ऋतु पर
जोड़ गया इतने
सिर से सिर
तन से तन
हाथ से हाथ
ह्र्दय से ह्रदय
क्रंदन भी हुआ लयबद्ध
हमें दिखा गया
जीने के राह
फ़ूँकता रहा हमारी मृत देह में
सदियों से
अपने प्राणों का संचार
एक स्वर में
जोड़ गया हम सब को
वह जीवित था
वह मरा नहीं
हमने अभी जीना सीखा है
इस पहले कदम का स्वागत
धन्य हो वह शरीर भी
जिसे देखने उमड़ पडी थी भीड़
नर-नारी, बालक-वृद्ध
जिसने कराया अहसास
हमारे हम होने का
यह कोई शव नहीं है, मित्र
यह जल है.
(शमशाद इलाही अंसारी "शम्स")


राज जैन
”आशाएँ”

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गाँव की मिट्टी में पले
घूँघट की ओट से झाँकते चेहरे
कुँवे की गहराई नापने का प्रयास
प्रश्न -चिह्न लिए चेहरे
परिवार की आशाएं
जल हो न हो
जीवन तो रहेगा
खाली गगरी कौन भरेगा ?
भारतीय होने का अहसास
हिम्मत और विश्वास कौन जगायेगा
किसके हाथों डोर थमाएं
किस मोहरे के द्वार खटखटाये
कौन देगा जिम्मेदारी इन की छाओं
काश एक दिन ऐसा आ जाये
रामराज्य की कल्पना साकार हो जाये
(राज जैन)


अशोक लव
“प्यासे जीवनों के पनघट “

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कतारों की कतारें
अभावों से बोझिल क़दमों के संग
सूखे होठों की पपड़ियों को
सूखी जीभ से गीलेपन का अहसास दिलाते
प्यासी आँखों में पानी के सपने लिए
कुएँ को घेरे
प्रतीक्षारत !

कुएँ में झाँकती
प्यासी आशाएँ
कुएँ की दीवारों से टकराते
झनझनाते खाली बर्तन.

बिखरती आशाओं
प्यासे जीवनों के पनघट !
असहाय ताकते
जनसमूह
शायद..शायद ..होठों को तर करके
हलक से नीचे तक उतर जाए
पानी !!
(अशोक लव)


सिंह उमराव जातव
" तुम्हारे स्वागत में "

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राहों में पावों की आहट
दिल में हलचल सी/
उपवन में भँवरे अधीर
तितलियों में घबराहट सी/
मलयानिल मलयानिल सा
हर उपवन महक गया/
शबनम बन माणिक सी
फूलों के अधरों पर उतरी/
कोयल ने कूक कर
मुनादी सी घोषणा की-
आमद है आमद है
तुम्हारी आमद है/

हिचकियां माध्यम से द्रुत पर/
चाहत युगों की प्यास बन
गीतों में सँवर कर
भँवरों की गुनगुन सी
शब्दों को छीन गई/
अंखियन के द्वारे पर
अनुस्मृति के किवाड़ खोल
प्रतिबिंब से उकेर गई/
साँसों में मलयाचल
तन पर अबीर सा
आँचल भर बिखेर गई/
कागा की कांव कांव
बन कर आलाप सी
उद्घोषणा करे है कि-
आमद है आमद है
तुम्हारी आमद है/

मधुशाला में साकी ने
औंधे चषक सीधे किए/
नींद से झकोर कर
बोतलें चैतन्य कीं/
गज़लों के झोंके
डगमगाते से आ गए
बाहर से भटकते हुए/
बटोही राह भूल कर
मधुशाला के द्वार पर
किवाड़ खटखटाने लगे/
घुँघरू बहकने लगे
और वीणा के तार
समवेत हौले से गुनगुनाए-
आमद है आमद है
तुम्हारी आमद है/
(सिंह उमराव जातव)



शाहिद खान
“विरासत”

================================
शहरी ऑफिस के,
द्वार पर रखे,
उस प्लास्टिक के बड़े,
पीपे की रंगीन टोंटीयों से निकले,
झांसदार,
पश्चिमी रासायनिक पेय से,
कहीं बढ़कर,
प्यास बुझा जाते थे,
वह,
दो घूँट,
चिपचिपाहट भरे,
गरम दूध के,
जो,
माँ,
धर जाती थी,
मटमैले कपड़े में लपेट कर,
हर सुबह-शाम,
स्टडी-टेबल के कोने पर,
रखे कांच के तश्तरी,
के बीचों-बीच,
भर कर,
स्टील के ग्लास में,
जिससे आती रहती थी,
एक,
महक,
गरम राख की,
जिसके कुछ कण,
उड़कर चिपक जाते थे,
गिलास के तलवे से,
जब,
माँ फूंका करती थी,
अपनी ममता,
उस,
इक-फुटिया,
लोहे की फुंकनी के,
सुराख़ के उस पार,
आंगन के ठीक बीचोंबीच,
रखे चूल्हे के,
धीमे गर्म आंच में........................
(शाहिद खान)


रश्मि प्रभा
"कुआँ"

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रास्ते के उतार-चढ़ाव
लगते हैं कुआं और खाई
पर अक्सर यहीं से है
ज़िन्दगी की सदा आई
लड़खड़ाते क़दमों को
दिया है प्रभु ने एक ठहराव
संतुलन की परिभाषा
कुँए ने ही है बनाई ...
(रश्मि प्रभा)


अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
“कठिन डगर पनघट की”

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कठिन डगर पनघट की ..
सबका अपना अपना मधुघट सबकी अपनी मटकी || कठिन डगर ..

एक कूप ऐसा देखा है , जिसकी हुलिया ऐसी
जगत बनी लोगों की भैय्या , टूटी फूटी वैसी ,
इंतिजार की अकथ कहानी , आस-रज्जु सी लटकी ||१|| कठिन डगर ..

प्यासी पथराई आँखें सुख-सजल नहीं हो पातीं
ये रतनार उपासे रहते , क्या कहके समझातीं ?
ऊपर अवसरवादी बदरा , करता नयन - मटक्की ||२|| कठिन डगर ..

रेतीले वीरानेपन में जल पाना , मृग - तृष्णा !
दवा ज़रा सी , सौ सौ रोगी , होती घोर वितृष्णा ,
नब्बे रोते जार जार , अब कथा कहूँ क्या इनकी ! , ||३|| कठिन डगर ..

मटकी लेकर वह घर आयी लेकिन ज़रा सा पानी ,
उसको भी पीने आ पहुँची गिलहरियों की नानी ,
गुजर-बसर इतने में करना , इच्छा यही नियति की ||४|| कठिन डगर ..

दादा के मोटे चश्मे की धूर नहीं धुल पायी
चौका रूखा अदहन सूखा दाल नहीं घुल पायी ,
लहुरा लरिका मार खा गया , अनायास ही अबकी ||५|| कठिन डगर ..

मन-रघुवा की साध-प्रियतमा बेले पर ललचाये
इस अकाल-बेला में बेला कहाँ से कोई लाये ,
फुला के गेंदे जैसा मुंह वह भी है अनकी - अनकी ||६|| कठिन डगर ..

भैय्या ,वह भी इक दुनिया है जल है जिसकी थाती
तृप्त देखकर औरों को जिसकी छाती जल जाती ,
मत्स्य-न्याय की इस दुनिया में कौन सुनेगा किसकी !,||७|| कठिन डगर ..

अपनी मर्जी के सब मालिक सूरज चाँद सितारे
उन्हें देख ललचाये से दृग , प्यासे हारे , हा रे !
सीमित होकर मांग रहा है , परिधि पयोधि गगन की ?, ||८|| कठिन डगर ..

हे 'बौना' कवि , यही मान ले दुनिया अक्कड़ - बक्कड़
बूझ नहीं पाया है अब तक कोई लाल बुझक्कड़ ,
सच की नौका बहुत दूर है , उलझी - अटकी - भटकी ||९|| कठिन डगर ..
(अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी)


योगराज प्रभाकर
”प्यासा कुआं “

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कत्ल पेड़ों का हुआ तो, हो गया प्यासा कुआँ !
तिश्नगी अब क्या बुझाएगा भला तिश्ना कुआँ !

पनघटों पर ढूँढती फिरती सभी पनिहारियाँ,
एक दिन तो लौट कर आयेगा बंजारा कुआँ !

बस किताबों में नजर आएगा, ये अफ़सोस है
हो गया इतिहास अब ये भूला बिसरा सा कुआँ !

एक दिन बेटी को जिसकी खा गया था रात में,
उसको तो ख़ूनी लगे उसदिन से ही अँधा कुआँ !

मौत शायद टल ही जाये धान की इंसान की,
गर किसी सूरत कहीं ये हो सके ज़िन्दा कुआँ !

अब यकीनी लग रहा है घर में नन्हा आएगा,
उसकी माता ने बहु संग प्यार से पूजा कुआँ !

ये मेरी आवाज़ में ही नकल करता था मेरी,
जो भी मैं कहता इसे, वोही सुनाता था कुआँ !

उसको भागीरथ कहेगा आने वाला वक़्त भी,
घर के आँगन में कभी जो लेके आया था कुआँ !
(योगराज प्रभाकर)


शशि संजीव
“प्यास”

============================
एक जल सोत्र - प्यासे अनेक
सांसें सीमित - चाहतें अनेक
पल पल बदलती इस दुनिया में
बदले है रंग प्यास भी
हर पल हर घड़ी...
इच्छाओं के मरुस्थल में
खींचती है जब मृगतृष्णा किसी पूर्ति की
अभावों के मारे खींचतें चले जाते हैं
बेबस लाचार कुछ लोग ...
पूर्ति न सही पर प्यासों की भीड़ में हो कर शुमार
सांत्वना पा लेते हैं वे लोग
हकीक़त ज़िन्दगी की अपना लेते हैं वे लोग
की प्यास कभी कभी कोई
जीवनपर्यंत बुझती नहीं...
(शशि संजीव)

कवियित्री महादेवी वर्मा


दोस्तो,
कवियित्री महादेवी वर्मा पर एक लेख विकिपीडिया मे तैयार हो रहा है..उसके लिये महादेवी वर्मा से सम्बन्धित जानकारी और तस्वीरो की आवश्यकता है..यदि आप भेज सकेँ तो कृपया निम्नलिखित पते पर भेज देँ. सहयोग की आशा रहेगी.

हमारा पता है..

धन्यवाद!

जुगलबन्दी-03

1.
दीप दीपावली के हज़ारों नये
, मेरी अँगनाई में मुझको घेरे रहे
किन्तु थे वे सभी बातियों के बिना, इसलिये छाये फिर भी अँधेरे रहे
रोशनी की किरण, इस गली की तरफ़, आते आते कहीं पर अटक रह गई
ज़िन्दगी के क्षितिज पर उमड़ते हुए, बस कुहासों के बादल घनेरे रहे

----------------------------------------------राकेश खंडेलवाल, Dated: 6/16/2006 06:27:03 AM.

2.

कोई तो आकर दीप जलाए

दिल में छुपे है घोर अँधेरे
कोई तो आकर दीप जलाए ॥
यादों के साए मीत है मेरे
कोई उन्हें आकर सहलाए ॥

टकरा कर दिल यूँ है बिखरा
तिनका तिनका बन कर उजडा
चूर हुआ है ऐसे जैसे
शीशों से शीशा टकराए॥

चोटें खाकर चूर हुआ जो
जीने पर मजबूर हुआ वो
जीना मरना बेमतलब का
क्या जीना जब दिल मर जाए॥

चाह में तेरी खोई हूँ मैं
जागी हूँ ना सोई हूँ मैं
सपनों में वो आके ऐसे
आँख मिचौली खेल रचाए॥

तेरे मिलन को देवी तरसे
तू जो मिले तो नैना बरसे
कोई तो मन की प्यास बुझाए
काली घटा तो आए जाए॥

----------------------------------------------Devi Nangrani, Dated: Wed, 21 Jun 2006 20:49:15 -0000

जुगलबन्दी-02


1.
नरगिस

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
लहरा कर, सरसरा कर , झीने झीने पर्दो ने,
तेरे, नर्म गालोँ को जब आहिस्ता से छुआ होगा
मेरे दिल की धडकनोँ मेँ तेरी आवाज को पाया होगा
ना होशो ~ हवास मेरे, ना जजबोँ पे काबु रहा होगा
मेरी रुह ने, रोशनी मेँ तेरा जब, दीदार किया होगा !
तेरे आफताब से चेहरे की उस जादुगरी से बँध कर,
चुपके से, बहती हवा�"ँ ने,भी, इजहार किया होगा
फैल कर, पर्दोँ से लिपटी मेरी बाहोँ ने, फिर् , तेरे,
मासुम से चेहरे को, अपने आगोश मेँ, लिया होगा ..
तेरी आँखोँ मेँ बसे, महके हुए, सुरमे की कसम!
उसकी ठँडक मेँ बसे, तेरे, इश्को~ रहम ने,
मेरे जजबातोँ को, अपने पास बुलाया होगा
एक हठीली लट जो गिरी थी गालोँ पे,
उनसे उलझ कर मैँने कुछ �"र सुकुन पाया होगा
तु कहाँ है? तेरी तस्वीर से ये पुछता हूँ मैँ..
आई है मेरी रुह, तुझसे मिलने, तेरे वीरानोँ मैँ
बता दे राज, आज अपनी इस कहानी का,
रोती रही नरगिस क्युँ अपनी बेनुरी पे सदा ?
चमन मेँ पैदा हुआ, सुखन्वर, यदा ~ कदा !!
---------------------------------Lavanya Shah, Dated: Sun, 07 May 2006 19:34:59 -0000


2.

कैसे पलकें उठाऊँ मैं अपनी
आईना देख कर है शरमाया...
---------------------------------Devi Nangrani, Dated: Tue, 09 May 2006 17:50:55 -0000

3.

रात की उँगलियाँ
आँखों पे फिराता था क्यों
चाँद पानी की सतह
पर तैरता था क्यों
वो हसीन ख्वाब आँखों
में सोता था क्यों
जो तस्वीर सचमुच कहीं भी नहीं
उसकी याद में
शब भर रोता था क्यों

---------------------------------Pratyaksha Sinha, Dated: Thu, 10 May 2006 12:30:35 AM

4.

गज़ल: HusN hi Husn
---------------------------------
ऐ हुस्न तेरी शमा यूँ जलती रहे सदा
कैसे दूँ दाद हाथ को, जिसकी तू है शफा.१
सुँदर सी सुरमई तेरी आँखें जो देख ली
पलकें झपक सकी न मैं नज़रें उसे मिला.२
अँगडाइयां है लेता यूं तेरा जवाँ बदन
सिमटाव देखकर तेरा शरमाए आइना.३
पलकें झुकी ही जाती क्यों जब शीशा सामने?
वो बेमिसाल थी तेरी शरमाने की अदा.४
झुकती रही न उठ सकी, झुककर वो एक बार
है लाजवाब हुस्न तू, तेरी गज़ब अना या
सजदा करे ऐ हुस्न! तुझे मेरी ये वफा. ५
जीने की कुछ तो दे मुझे मोहलत ऐ मौत तू
देवी निभा रही सदा, अब तू भी तो निभा.६

---------------------------------Devi Nangrani, Dated: Thu, 11 May 2006 20:47:30 -0000

जुगलबन्दी-01




१. आस का दामन
----------------------

यकीन की डोर पकड़ कर
आस का दामन छूने की तमन्ना
मेरे इस मासूम से मन को
अब तक है
जो ज़िंदगी की दल दल में
धँसता चला जा रहा है
पर,
सामने सूरज की रौशनी
आस की लौ बनकर
मौत के दाइरे में
जीवन का हाथ थाम रही है.
जब तक सांसें हैं
तब तक जीवन है
�"र,
जीवन अनमोल है.

----------------------- By: Devi Nangrani, Dated: Mon, 17 Apr 2006 20:06:44 -0000

2. माँ, मुझे फिर जनो ....
~~~~~~~~~~~~~~~~~~


" देखो, मँ लौट आया हुँ !
अरब समुद्र के भीतर से,
मेरे भारत को जगाने
कर्म के दुर्गम पथ पर
सहभागी बनाने, फिर,
दाँडी ~ मार्ग पर चलने
फिर एक बार शपथ ले,
नमक , चुटकी भर ही
लेकर हाथ मँ, ले,
भारत पर निछावर होने
मँ, मोहनदास गाँधी,
फिर, लौट आया हूँ ! "

-----------------------By: Lavanya Shah, Dated: Fri, 21 Apr 2006 11:02:42 -0000

3.

मन पानी सा छलक छलक ,
उसमें तैरे ये जीवन
था तपता सूरज जो कभी
चाहें शीतलता अब वो मन

बार बार इच्छाएं पर
अपना हाथ बढ़ाती हैं,
खिंचा चला जाता हूं मोह में,
तृष्णांए मुस्काती हैं

है विदित मुझे,
नहीं समय ये,
आकांक्षाएं सहलाने का
हृदय के नभ के,
एक छोर से
दूजे तक भी जाने का
पर आस का दामन
फैला एसा
जो शक्ति मुझे देता

मैं कृषकाय
और क्षीण सही पर
गान विजय के गाऊंगा,
हाथ बढ़ा कर गिरी शिखर पर
कभी पंहुच तो पाऊंगा

यदि संभव न हो ऐसा
तो क्षोभ नहीं ना कुंठाघात
प्रयत्नों की बलिवेदी पर
रणनायक कहलाऊंगा.
-----------------------By: Renu Ahuja, Dated: Fri, 28 Apr 2006 6:42 AM

शीर्षक 06 – मेरी छत

1.

( JAGAD GURU SHANKARACHARYA KO NAMAN KARTE HUE : ~~ )
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
AHAM BRAHMASMEE [ Mera Prayas : Lavanya ]
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
Aseem ananta, vyom yehee to Meri chhat hai !
Samaheet Tattva sare, Nirgun ka sthayee aawas -
Haree bhuree Dhartee, vistarit, chaturdik,
Yahee to hai bichona, jo deta mujhe visharam !
Her disha mera aavran , pawan abhushan -
Her GHAR mera jahan path mud jata svatah: mera!
Pathik hoon, path per her dag kee padchap ,
vikal mera her shwaas tumse, aashraya maangta !
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
-Lavanya Shah - Date: Mon Mar 27, 2006 3:35 am
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

2.

छुट गई पीछे
मेरी छत
इस शहर से कोसों दूर
सुदूर मेरे गांव में
जिसके नीचे
न जाने कितने
मधुर यादें पले हैं मेरे
गोधुलि की वेला में
अपने हमजोली के साथ
चिडियों के कलरव के बीच
कल्पना के नाव पर
विचरन करता हुआ
मेरा बचपन
कितने आशियाने बना डाले
अपने ख्वाबों के
अपनापन क अहसास था
उन सबों में
लगता था बस यही दुनियां है
छलप्रपंच, धोखाधडी विहीन
लेकिन महानगर के
इस छत के नीचे
उन्ही बातों का समावेश है
जिनकी कल्पना
मेरा कोमल मन
शायद कर नहीं पाया
कि पग पग पर
पीठ पीछे
पैर खींचने वालों की
तादाद है यहां
अपनत्व की तो बात दूर
यह सोचना भी गुनाह है
इसलिए फिर से
वही जाने की चाह है
उसी छत के नीचे
जो वास्तव में
मेरी छत है
इस शहर से दूर
सुदूर मेरे गांव में

---------------------------- निर्भीक प्रकाश- Date: Tue Mar 28, 2006 2:03 pm

3.

मेरी छत
वहाँ से शुरु होती है
जहाँ से तुम्हारी
ज़मीन
खत्म होती है

रौशनी का
एक गोल टुकडा
बरस जाता है
किरणे बुन लेती हैं
अपनी दीवार

और हमारा घर
धूप ,साये, परिंदो
और बादल से
होड लगाता
झूम जाता है
हमारी आँखों में

---------------------------- प्रत्यक्षा सिन्हा - Date: Tue Mar 28, 2006 12:33 pm

4.

समझ के बाहर है
खेल मन की सियासत का,
मन की सोच का जंगल भी
किसी सियासत से कम नहीं,
कभी तो ताने बाने बुनकर
एक घरौंदा बना लेती है
जहां उसका अस्तित्व
आश्रय पा जाता है,
या, कहीं फिर
अपनी ही असाधारण सोच
के नुकीलेपन से
अपना आशियां उजाड़ देती है.
होश आता है
उस बेहोश सोच को
जब लगता है उसे
पांव तले धरती नहीं
और वो छत भी नहीं
जो एक चुनरी की तरह
ढांप लेती है मान सन्मान.
मन की सियासत! उफ!!
यह सोच भी शतरंज की तरह
बिछ जाती है
जहां उसूलों की पोटली भर कर
एक तरफ रख देते हैं हम
और सियासत के दाइरे में
पांव पसार लेते है,
जहां पहनावा तो नसीब होता है
पर छत नहीं.
हां! वो स्वाभिमान को
महफूज़ रखने वाली छत,
वो ज़मीर को जिंदा रखकर
जीवन प्रदान करने वाली छत,
जिसकी छत्र छाया में
सच पलता है
हां! सच सांस लेता है.

---------------------------- देवी नागरानी - Date: Tue Mar 28, 2006 11:13 pm

5.

मेरे दो चित्र:

आखिर क्यूँ
-----------
//१//

क्यूँ बिछडा संबध
ध्वनि तरंग बन
स्पंदित कर
रक्त धारा को छूता है

मेरी छत के नीचे
दीवारों के अजनबी
सायों के बीच
जब कोई और नही होता
तब यही अहसास
मुझे हर पल होता है.


//२//

सूरज क्यूँ इतना तपता है
मेरा अंग अंग सब जलता है
पहले सा सूरज लगता है
पर कितनी तेज चमकता है.

मेरी छत न जाने कहाँ गई
छांव पाने को दिल मचलता है
माँ! तू जबसे दूजे जहां गई
ये घर बिन छत का लगता है.

---------------------------- समीर लाल - Date: Wed Mar 29, 2006 7:10 am

6.

कभी कभी इच्छा होती है,
अपनें पाँवो के नीचे की
जमीन को खिसका कर
वहाँ तक ले आँऊ
जहाँ से तुम्हारी छत
शुरु होती है ।

वो जमीन
जिस पर मेरे पाँव
अब भी टिके हुए हैं
और जिस पर हम नें
मिल कर ख्वाब देखे थे,

वो हसीन ख्वाब आज भी
अगरबत्ती की तरह सुलग रहे है,
पता नहीं खुशबु
तुम्हारी छत तक
पहुँची या नहीं ?

---------------------------- अनूप भार्गव - Date: Wed Mar 29, 2006 5:46 am

7.

मेरे सिरहाने लगी
जो जमीन है
उसे ही तुमने छत कहा
हाँ
जो मेरे सर पर है
वह तुम्हारे पांवोंके नीचे
और जब वह नीचे है
मेरे सर के
बनकर सिरहाना
वह तब भी
तुम्हारे पाँव तले है
तुम ठीक ही
मेरी छत को
अपने पांव की जमीन कहते हो
और अब मैं
ढूँढ़ रही हूँ
छत का अर्थ

---------------------------- मैत्रेयी अनुरूपा - Date: Wed Mar 29, 2006 11:26 pm

8.

निगाहों से मेरी वो ढूंढो मेरी छत
अरे कोई ढूंढो मेरी छत, मेरी छत.

चली जाने कैसी विदूषित हवाएं
उड़ा के चली वो मेरी छत, मेरी छत.

पनाह पा रहा था जो दामन वहीं पर
उड़ा के चली वो मेरी छत, मेरी छत.

अहसास से जो बुने ताने बाने
उठाके चली वो मेरी छत, मेरी छत.

पलकों पे अश्कों के मोती बिखेरे
बहाके चली वो मेरी छत, मेरी छत.

कहते सुना देवी हम सब है भाई
हां! मैके चली वो मेरी छत, मेरी छत.

---------------------------- देवी नागरानी - Date: Sat Apr 1, 2006 2:32 am

9.

jag bauna hai
sapney oonchey
meri chhat ke neechey
sab jhoothey hain
sapney sachhey
meri chhat ke neechey

din andhiyaaley
raatein ujali
meri chhat ke neechey
sawan bin badal
bin bijali
meri chhat ke neechey

jab tum aatey
dhar gin-gin pag
meri chhat ke neechey
tum sang banata
surabhit pag-mag
meri chhat ke neechey

preet bhara mann
thodi an-ban
meri chhat ke neechey
maadak madhu bin
bauraye mann
meri chhat ke neechey

virahakul ki
kaatar chitwan
meri chhat ke neechey
abhisaar ras
gupchup gopan
meri chhat ke neechey

seemit ghadiyaan
amit laalasa
meri chhat ke neechey
laghutam jeewan
gurutam asha
meri chhat ke neechey

chand shabd mein
vyaapak antar
meri chhat ke neechey
kala sarovar
kavita nirjhar
meri chhat ke neechey

itna kuchh
kaise sim-ta hai
meri chhat ke neechey
nishchit koi
kavi bas-ta hai
meri chhat ke neechey

---------------------------- Jaya Pathak - Date: Tue Apr 4, 2006 3:35 pm

10.

"ये सब हुआ'

प्रकृति का प्यार पला
मेरी छत के नीचे।
उस प्यार ने सींचे
छोटे-छोटे फूल
मेरी छत के नीचे।
आंगन खिलने लगा
बहार छाने लगी
बयार चलने लगी
मेरी छत के नीचे।
बच्चे हंसने लगे
फुदकने लगे
पंछी गाने लगे
मेरी छत के नीचे।
अपना असर देखकर
हैरान था,चकित था प्यार
हां, ये सब हुआ
मेरी छत के नीचे।

---------------------------- मधु अरोरा - Date: Fri Apr 7, 2006 7:07 pm

11.

Meri chhat ke neeche
kamaron ke batware huye
ek - ek kamaron ki banayi gayi
chhadm pehchan
sabake liye gadhi gayi
chhadm paribhasayen.......!

Meri chhat ke neeche
jal ke shrot vibhakta huye
un vibhajit shroto mein
laal rang bhi ghule
un shroto ki raksha ke liye
gathit huyi senayen.......!

Meri chhat ke neeche
malik murt roop mein puje gaye
malik ko awaz lagayi
malik ki prarthna huyi
alag alag guton mein
alag alag chole odhkar.....!

Meri chhat ke neeche
har kamaron mein
hawaon mein tyoharon ke rang ghule
bachchon ki kilkariyan uthi
maa-shishu sa sambadh ubhara
kamaron ki seemaon se upar uthkar....!

Meri chhat ke neeche
dhara awak hai
ye sab dekhkar........!

---------------------------- Shyam Jha - Date: Tue Apr 11, 2006 10:17 am