जुगलबन्दी-01




१. आस का दामन
----------------------

यकीन की डोर पकड़ कर
आस का दामन छूने की तमन्ना
मेरे इस मासूम से मन को
अब तक है
जो ज़िंदगी की दल दल में
धँसता चला जा रहा है
पर,
सामने सूरज की रौशनी
आस की लौ बनकर
मौत के दाइरे में
जीवन का हाथ थाम रही है.
जब तक सांसें हैं
तब तक जीवन है
�"र,
जीवन अनमोल है.

----------------------- By: Devi Nangrani, Dated: Mon, 17 Apr 2006 20:06:44 -0000

2. माँ, मुझे फिर जनो ....
~~~~~~~~~~~~~~~~~~


" देखो, मँ लौट आया हुँ !
अरब समुद्र के भीतर से,
मेरे भारत को जगाने
कर्म के दुर्गम पथ पर
सहभागी बनाने, फिर,
दाँडी ~ मार्ग पर चलने
फिर एक बार शपथ ले,
नमक , चुटकी भर ही
लेकर हाथ मँ, ले,
भारत पर निछावर होने
मँ, मोहनदास गाँधी,
फिर, लौट आया हूँ ! "

-----------------------By: Lavanya Shah, Dated: Fri, 21 Apr 2006 11:02:42 -0000

3.

मन पानी सा छलक छलक ,
उसमें तैरे ये जीवन
था तपता सूरज जो कभी
चाहें शीतलता अब वो मन

बार बार इच्छाएं पर
अपना हाथ बढ़ाती हैं,
खिंचा चला जाता हूं मोह में,
तृष्णांए मुस्काती हैं

है विदित मुझे,
नहीं समय ये,
आकांक्षाएं सहलाने का
हृदय के नभ के,
एक छोर से
दूजे तक भी जाने का
पर आस का दामन
फैला एसा
जो शक्ति मुझे देता

मैं कृषकाय
और क्षीण सही पर
गान विजय के गाऊंगा,
हाथ बढ़ा कर गिरी शिखर पर
कभी पंहुच तो पाऊंगा

यदि संभव न हो ऐसा
तो क्षोभ नहीं ना कुंठाघात
प्रयत्नों की बलिवेदी पर
रणनायक कहलाऊंगा.
-----------------------By: Renu Ahuja, Dated: Fri, 28 Apr 2006 6:42 AM

5 Comments:

  1. बेनामी said...
    १. आस का दामन

    यकीन की डोर पकड़ कर
    आस का दामन छूने की तमन्ना
    मेरे इस मासूम से मन को
    अब तक है
    जो ज़िंदगी की दल दल में
    धँसता चला जा रहा है
    पर,
    सामने सूरज की रौशनी
    आस की लौ बनकर
    मौत के दाइरे में
    जीवन का हाथ थाम रही है.
    जब तक सांसें हैं
    तब तक जीवन है
    और,
    जीवन अनमोल है.
    बेनामी said...
    मन पानी सा छलक छलक ,
    उसमें तैरे ये जीवन
    था तपता सूरज जो कभी
    चाहें शीतलता अब वो मन

    बार बार इच्छाएं पर
    अपना हाथ बढ़ाती हैं,
    खिंचा चला जाता हूं मोह में,
    तृष्णांए मुस्काती हैं

    है विदित मुझे,
    नहीं समय ये,
    आकांक्षाएं सहलाने का
    हृदय के नभ के,
    एक छोर से
    दूजे तक भी जाने का
    पर आस का दामन
    फैला एसा
    जो शक्ति मुझे देता

    मैं कृषकाय
    और क्षीण सही पर
    गान विजय के गाऊंगा,
    हाथ बढ़ा कर गिरी शिखर पर
    कभी पंहुच तो पाऊंगा

    यदि संभव न हो ऐसा
    तो क्षोभ नहीं ना कुंठाघात
    प्रयत्नों की बलिवेदी पर
    रणनायक कहलाऊंगा.
    -रेणु आहूजा.
    बेनामी said...
    माँ, मुझे फिर जनो ....

    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    " देखो, मँ लौट आया हुँ !
    अरब समुद्र के भीतर से,
    मेरे भारत को जगाने
    कर्म के दुर्गम पथ पर
    सहभागी बनाने, फिर,
    दाँडी ~ मार्ग पर चलने
    फिर एक बार शपथ ले,
    नमक , चुटकी भर ही
    लेकर हाथ मँ, ले,
    भारत पर निछावर होने
    मँ, मोहनदास गाँधी,
    फिर, लौट आया हूँ ! "
    lavanya
    बेनामी said...
    क्या बात है, शानदार प्रतीक और बेहतरीन बिम्बों का प्रयोग किया है। ऊर्जा से भरपूर शब्दों का प्रयोग। अन्य सूक्ष्म विषयों की भी हाथ में ले। शानदार
    shama said...
    Behad sundar..! Aur kya kahun?

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